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बुधवार, सितंबर 28, 2016

प्राकृतिक सौन्दर्य के माध्यम से जीवन का सच कहती कविताएँ

कविता-संग्रह - खिड़की से झांकते ही 
कवयित्री - डॉ. शील कौशिक 
प्रकाशक - सुकीर्ति प्रकाशन 
पृष्ठ - 112
कीमत - 250 / - सजिल्द  
समाज, संसार और सृष्टि वैसी ही है, जैसा कोई उसे देखता है । बड़ी-से-बड़ी बुराई यहाँ मौजूद, खूब अच्छाइयाँ विद्यमान हैं । एक तरफ कुरूपता के मंज़र हैं तो दूसरी तरफ अथाह सौंदर्य है । अपनी-अपनी खिड़कियों से सब झाँकते हैं और सारे दृश्यों में से वही देख पाते हैं, जो वो देखना चाहते हैं । निस्संदेह एक कवि को समाज के कुरूप पक्ष को उद्घाटित करना चाहिए लेकिन इस सृष्टि की सुंदरता को भी नकारा नहीं जा सकता । कवि और लेखक चिंतनशील जीव होते हैं और समाज का कुरूप चेहरा जब उन्हें अवसाद की तरफ धकेलने लगता है, तब प्रकृति का सान्निध्य उनमें नई ऊर्जा का संचार करता है । प्रकृति संग गुजारे पल जब कविता का रूप धारण करते हैं तब ये शब्द पाठक को भी जीवन के तनाव से मुक्ति देते हैं । सुप्रसिद्ध कवयित्री डॉ. शील कौशिक का कविता-संग्रह " खिड़की से झाँकते ही " इसी तरह का संग्रह है जो अपनी खिड़की से सुंदर प्रकृति को देखता है । इस संग्रह में 153 कविताएँ हैं जो 10 भागों में विभक्त हैं । ये भाग है - पहाड़ से मुलाकात, भीगीं मुस्कानें लिए बादल, आमंत्रण पेड़ का, प्रकृति करे पुकार, जादूगर चाँद, चिड़िया का गीत, फूलों की बारात, नजारा बारिश का, रोता है समुद्र और हवा से गुफ्तगू व अन्य । इन भागों के शीर्षक ही इस काव्य-संग्रह की विषय-वस्तु बयान कर रहे हैं । कवयित्री ने प्रकृति को बड़े करीब से देखा है, वह उनसे संवाद करती है और उनके माध्यम से जीवन के सच को उद्घाटित भी करती है ।

मंगलवार, सितंबर 20, 2016

रहस्यवाद, प्रकृति और सच को बयाँ करता संग्रह

काव्य-संग्रह - निदा फ़ाज़ली ( ग़ज़लें, नज़्में, शे 'र और जीवनी )
संपादक - कन्हैयालाल नन्दन 
प्रकाशन - राजपाल 
पृष्ठ - 160 ( पेपरबैक )
कीमत - 150  / -
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए ।
हिंदी-उर्दू शायरी का शौकीन ऐसा कौन है, जो इन पंक्तियों से अपरिचित होगा । इन पंक्तियों के शायर हैं - निदा फ़ाज़ली । राजपाल प्रकाशन के आज के प्रसिद्ध शायर श्रृंखला में " निदा फ़ाज़ली : गज़लें, नज़्में, शे'र और जीवनी " पुस्तक का संपादन किया है - कन्हैयालाल नन्दन ने । इस पुस्तक में शामिल रचनाओं में निदा फ़ाज़ली के फलसफे को बड़ी आसानी से समझा जा सकता है । 

बुधवार, सितंबर 14, 2016

कब मिलेगा हिंदी को उसका मुकाम

1949 के 14 सितम्बर को हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया लेकिन आज तक हिंदी अपना मुकाम हासिल नहीं कर पाई । हिंदी आज भी अपेक्षित-सी महसूस कर रही है । हिंदी के साथ अंग्रेजी को 15 वर्ष के लिए स्वीकार किया गया था । तब उम्मीद थी कि इतने वर्षों में हिंदी का प्रयोग हर क्षेत्र में होने लगा लेकिन वह अवधि हम कब की पार कर आए । अंग्रेजी आज भी हिंदी पर भारी पड़ रही है । स्थिति इतनी दयनीय हो गई है कि कई संस्थाएँ 14 सितम्बर को ' हिंदी डे ' मनाती हैं । हिंदी का अंग्रेजीकरण ज़रूरत से ज्यादा ही हुआ है । अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में हिंदी में बात करना अपराध के समान है । अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में हिंदी को जब विषय के रूप में पढ़ाया जाता है, तो इसे अंग्रेजी के माध्यम से ही पढ़ाया जाता है । मात्राओं का ज्ञान देने का नमूना देखिए - " आ has a मात्रा but अ does not have a मात्रा । " इस तरीके से पढ़े विद्यार्थियों को हिंदी का कितना ज्ञान होगा, इसका सहज ही अंदाज़ लगाया जा सकता है । अब प्रश्न यह है कि हिंदी की अवहेलना क्यों हो रही है ? हिंदी को सिर्फ़ हिंदी दिवस पर ही क्यों याद किया जाता है ?

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